Thursday, 17 August 2017

Honest Indian Mindset Behind Sarahah

Thursday, August 17, 2017 By , , 12 comments


I had to write about it. The craving was so high that I could not procrastinate it. Sorry laziness, better luck next time!

Sarahah! The name needs no introduction because the chances are quite high that you have already downloaded the app and have waited patiently for those ‘genuine’ appreciations and criticism (milti sabko he, but batata koi nhi he). The picture below describes exactly what I feel about it. Sorry if that hurts your feelings! *Azaad desh ke azaad nagrik ki azaad sooch he*



Now, every time, every single time, I open Facebook, what do I see? People put up the screenshot about an anonymous person who has appreciated them and they ask to get in touch with them.

Bhaiya, banda/bandi isi ka to wait kar rahe the ki kab aap unhe bolenge to get in touch. Unke uparto shraap tha iske pehle contact na kar pane ka.

Isi screenshot ko dekh ke hi to Bruce Wayne ne bhi Gordon ko apni asliyat bata di. Aur Gangadharbhi Geeta Vishwas ka isi cheez ko leke wait kar raha tha! Samjhe!





Anyway, I pondered about the mindset that drags people to follow the bandwagon and download the app. I have jotted down the same thing below in an ‘honest’ manner. My interpretation might not be as apt, but certainly, it will tickle your funny bone:

*Random person, not aware about Sarahah, opening their Facebook account*

“Chull ho rahi he, Facebook kholta hun.”

“Ye kya screenshot laga rakha he aur isme appreciation likhi he. Is bande ke liye appreciation! Hehehe!”

*Scrolls down*

“Fir waisa hi screenshot! Isme bhi jhoot”

*Scrolls further down*

“Bawa re bawa, ye chal kya raha he. Har koi wahi cheez ka screenshot laga raha he”

“Man to kar raha he ki istmaal karu. But mere sane dost fir mera mazaak udayenge ki bheed me shareekh ho gaya. Kya karun?”

“Appreciation ki apne ko bohot laalach to he. But kisi ne gaali bhej di to? Post nhi karenge public me. Hehehe. BUT, agar kisi ne koi tareef nhi kari to? Locha ho jayega!”

“Kya karun?! Bandwagon me shamil hona pasand nhi he, but laalach to ho rahi he.”

“Par kya pata koi bethi ho mere is app ko join karne ke intzaar me, tabhi wo apna pyaar kaboolkaregi mere liye. Jo itne saalo me kabhi nhi huya, is app se ho jaye. Desperation to andar bhara he hi apne me!”

“Appreciation nhi aayi to khud se hi post kar denge. Spotlight to chahiye hi!”

“Bohot pressure he yaar. Aaj tak kabhi esa chutiyapa nhi kiya. Aaj apni izzat dao pe rakhu kin hi?!”

*After not so long time*

*Posts the Sarahah’s link to social media*

Aur isi tarah bik jate he log tareefo ke lalach me!

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Sunday, 13 August 2017

EK AAM KAHANI # 6

Sunday, August 13, 2017 By , , No comments

शाम का समय था। मुंशी जी के बेटे का रिजल्ट आने वाला था। उनके ऑफिस ख़त्म होने में कुछ आधा घंटा ही बचा था। चिंता सुबह से ही उनको खाये जा रही थी, की अगर उनका बेटा, गोपाल, फेल हो गया तो आगे क्या होगा। वजह वाजिब भी थी क्यूंकि उनकी आर्थिक स्तिथि कुछ सही नहीं थी। पत्नी की तबियत ख़राब चल रही थी, उसकी गोली दवाई में आधी तनख्वा चली जाती थी। बचे पैसो से जैसे तैसे घर का खर्च चला रहे थे तथा अपने बेटे की पढाई करवा रहे थे।


चिंता के बादल इतने में ही नहीं थमते थे। इससे बड़ी परेशानी ये थी की अगर उनका बेटे पास भी हो जाता हे और उसको स्कालरशिप नहीं मिलती तो प्राइवेट कॉलेज में पढ़ाने के पैसे कैसे जमा हो पाएंगे। इन्ही सब चिंता में सारा दिन निकल गया था। सब्र का बाँध भी मानो टूटने की कगार में था।

ये सब के बीच में फैक्ट्री का साईरन बजता है। मुंशी जी अपनी व्यथा और चिंताओं के पिटारे को दिल में दबा के पैदल चल देते हे बस स्टॉप की तरफ। रिजल्ट की चिंता उनके चेहरे पे स्पष्ट नज़र आती है।

बस स्टॉप में बस को देखने के लिए मुंशी जी राइट साइड देखते है। एक बार तो ये भी सोचते हे की पैदल ही निकल चले, परन्तु घुटने के दर्द को याद करते हुए रुक से जाते है। तभी दूर से एक लाल डब्बा उनकी ओर आता नज़र आता है। 'चलो कुछ तो अच्छा हुआ ', ये बोलते हुए लम्बी सास छोड़ते है। उसी वक़्त उनके फ़ोन में घंटी बजती है। फ़ोन पुराना हे और स्क्रीन ने साथ काफी हद्द तक छोड़ चूका हे। हाथ से स्क्रीन पूछते हुए वो उसको उठाते है।

"पापा, में अव्वल नंबर से पास हो गया", दूसरे तरफ से आवाज़ आती है।

वो उस आवाज़ को पहचान जाते है। उनके चेहरे के सारे रंग मानो लौट आये हो। वो ख़ुशी से कूदना चाहते है। अपने बच्चे को दुनिया की सारी ख़ुशी देना चाहते है और इसी उत्साह में वो उससे पूछते हे, "आज क्या खाओगे बेटे?"

घर की परिषतिथि जानते हुए उनका बेटा चुप कर जाता है। "बस आप घर आ जाइए,मुझे और कुछ नहीं चाहिए"

पर मुंशी जी भी बाप है। उनको पता हे की बेटे को जलेबी पसंद है। इसे याद रखते हुए, होठो में हलकी सी मुस्कान लिए कहते है, "ठीक हे, कुछ नहीं लाता"

कॉल कट्टा है और इतने में बस उनके सामने आके खड़ी हो जाती है। महीने का आखरी हफ्ता है और जलेबी लेते हुए जाना है। ये सोचते हुए वो अपनी जेब में हाथ डालके पैसे गिनते है। मात्र १० रूपए मिलते है।

मुंशी जी असमंजस में पद जाते है की बस से ५ km का सफर करे उन पैसो से, या फिर जलेबी अपने बच्चे के लिए लेके जाएँ। एक तरफ उनके घुटने का दर्द भी उनको याद हे परन्तु अपने बच्चे के चेहरे में जलेबी को देख के आने वाली ख़ुशी को वो मिस नहीं करना चाहते।

धीरे धीरे यात्री भी बस में चढ़ने को आ गए है। आखरी बंदा चढ़ता है, वो पीछे मुद के मुंशी जी को देखता हे की वो चढ़ जाएँ।

तभी, तभी मुंशी जी कुछ ऐसा कर जाते हे जिससे देखने वाले हैरान रह जाते है। वो सड़क उतर कर पैदल ही घर की और चल देते है।

और भला चले भी क्यों न ? बच्चे की मुस्कान कभी घुटनो के दर्द से छोटी हुई है ?!