Wednesday, 14 March 2018
EK AAM KAHANI # 7
विक्रम एक
सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करता था। जितनी बड़ी वो कंपनी थी उससे कहीं ऊचे उसके ख्वाब
थे। और कहीं न कहीं अपने ख्वाबो को पूरा करने के प्रेशर में वो टेंशन में रहता था।
परन्तु उसका स्वभाव दुसरो को अपना दुखड़ा सुनाने वालो जैसा नहीं था। बल्कि वो मुश्किल
को सहजता और द्रढ़ता के साथ संभालता था।
परन्तु आज
वो बहुत दुखी था। आज एक बिज़नेस डील उसके हाथ आते आते निकल गयी। ये डील उसकी लाइफ पलट
देती। वो विदेश की यात्रा भी कर पाता जो की उसका बचपन से सपना था।
'हर कुत्ते
का बुरा दिन आता है ' ऐसा आपने नहीं सुना होगा क्यूंकि किसी ने शायद ही कहीं कहा हो इस आर्टिकल के अलावा। खैर,
इस कहानी में अभी विक्रम के बुरे दिन चलते है। आदमी कितना भी सेहेंशिये क्यों न हो
, एक न एक समय वो कमज़ोर ज़रूर पड़ता है। ये वास्तविकता
है, 'मर्द को दर्द नहीं होता' सिर्फ अमिताभ
जी की फिल्मो में ही हो सकता है। वास्तविक जीवन से इस डायलाग का कोई भी संभन्ध नहीं
है। जीवन में मर्द को दर्द भी होता है और आसूं भी निकलते है।
इसीलिए जब
भी विक्रम मायूस होता था , वो अपने घर के पास वाली टापरी में जाके शांति के साथ चाय
पीता था। वो टपरी चालाने वाले उसके दददू के उम्र के व्यक्ति थे इसलिए वो उनको दददू तथा उनकी टापरी को 'दददू की
टपरी' बुलाता था जबकि उस दूकान का नाम 'श्याम टी स्टॉल ' था। श्याम दददू के बेटे का
नाम था जो की कभी कभार टपरी में आया करता था।
उनकी टापरी
की चाय विक्रम को सारे दुखो से दूर कर देती थी।
एक अलग सा सुकून था उस जगह में। और क्यूंकि विक्रम वह कई दफा आता रहता था तो
उनके बीच में एक घनिष्ट सी बन चुकी थी। दददू विक्रम की कहानी बखूबी जानते थे वो विक्रम
दददू की। विक्रम उनको अपने दादा जी जैसा मानता
था। एक बार उनकी अचानक से तबियत ख़राब हो गयी थी , तब इलाज के पैसे विक्रम ने ही दिए
थे।
आज भी विक्रम
उसी टापरी जाता है। आखरी बार वो २ हफ्ते पहले आया था वहां। मायूस विक्रम टापरी में
पोहोचता है।
'दददू एक
कप चाय देना ', वो धीमी आवाज़ में कहता है।
उसके सामने
चाय आ जाती है। वो उत्साहित होक चाय अपने हाथो में लेता हे वो ऊपर देखता है। ऊपर देखते
ही उसकी ख़ुशी थोड़ी कमतर हो जाती है। उसके सामने श्याम खड़ा रहता है। वो उससे पूछता हे
की दददू कहा है।
'उनकी पिछले
हफ्ते हार्ट अटैक से डेथ हो गयी '
ये जवाब सुनते
ही विक्रम के पैरो टेल ज़मीन खिसक जाती है। उसे समझ नहीं आता की ऐसा कैसे हो सकता है।
उसकी सारी सुध जैसे घास चरने चली गयी हो, इस
प्रकार वो अचंभित बैठा रहता है। फिर थोड़ी देर बाद वो बिना चाय पिए , चाय के पैसे देके
वहा से चला जाता है।
कुछ दिनों बाद वो उस टपरी में शायद फिर से आये। शायद उसे यहाँ आके पहले से भी अच्छी चाय मिले। परन्तु जो सुकून दददू के रहने पे मिलता था वो अब कभी नहीं मिलेगा। आखिर खुशी और सुकून चीज़ ही ऐसी है। जगहों और वस्तुओं से कम और लोगो से ज़्यादा मिलती है।
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